संयुक्त राज्य अमेरिका ने विश्व व्यापार संगठन (WTO) पर वैश्विक व्यापार में असंतुलन पैदा करने का आरोप लगाया है। उसने यह भी कहा कि वर्तमान तथा भविष्य की व्यापार प्रणाली की समस्याओं के समाधान के लिए WTO उपयुक्त मंच नहीं है।
- अमेरिका ने सर्वाधिक तरजीही राष्ट्र (Most-favoured nation: MFN) सिद्धांत की भी आलोचना की है। उसने तर्क दिया कि यह सिद्धांत देशों को अपने द्विपक्षीय व्यापार संबंधों को अपने हित में बेहतर ढंग से उपयोग करने से रोकता है।
- ध्यातव्य है कि MFN सिद्धांत के तहत किसी उत्पाद पर WTO के सभी सदस्य देशों के लिए समान स्तर का प्रशुल्क (टैरिफ) लगाया जाता है। इसलिए द्विपक्षीय समझौतों के क्रियान्वयन में यह सिद्धांत बाधक बनता है।
WTO द्वारा सामना की जा रही प्रमुख चुनौतियां
- WTO के पुराने नियम नई व्यापार प्रणालियों के लिए प्रासंगिक नहीं: WTO के नियम निम्नलिखित नए व्यापार मुद्दों का समाधान नहीं प्रस्तुत करते:
- आर्थिक सुरक्षा से जुड़े मुद्दे,
- आपूर्ति श्रृंखला (Supply chain) से जुड़े व्यवधान,
- डिजिटल व्यापार के विनियमन, और
- जलवायु परिवर्तन के बहाने व्यापार को अवरुद्ध करने वाले भेदभाव-आधारित समझौते;
- जैसे-यूरोपीय संघ का कार्बन बॉर्डर एडजस्टमेंट मैकेनिज्म (CBAM) जो आयात पर कार्बन मूल्य आरोपित करके भारत जैसे विकासशील देशों के साथ भेदभाव करता है।
- व्यापार में बढ़ता असंतुलन: कुछ देशों की बाजार-प्रतिकूल नीतियों (व्यापार सब्सिडी, कोटा, सैनिटरी और फाइटोसैनिटरी) के कारण उनकी उत्पादन क्षमता बढ़ गई है और कुछ वस्तुओं की आपूर्ति के मामले में उनका वर्चस्व स्थापित हुआ है। उदाहरण के लिए: चीन का वर्चस्व।
- इससे कई देश कुछ वस्तुओं की आपूर्ति के लिए चीन जैसे देशों पर निर्भर हो गए हैं और द्विपक्षीय विवाद की स्थिति में इनकी आपूर्ति बाधित होने का खतरा बढ़ गया है।
- विवाद निपटान संस्थाएं निष्क्रिय हो गई हैं: अमेरिका द्वारा नए सदस्यों की नियुक्ति रोके जाने के कारण WTO की अपीलीय संस्था लंबे समय से कार्य नहीं कर पा रही है।
- भू-राजनीतिक तौर पर देशों का समूहों में विभाजन: आर्थिक राष्ट्रवाद और व्यापार युद्धों (विशेषकर अमेरिका–चीन तनाव) के कारण देशों द्वारा संरक्षणवादी नीतियां लागू करने की प्रवृत्ति बढ़ी हैं। यह प्रवृत्ति WTO के व्यापार ढांचे की उपेक्षा करती है।
- सहमति नहीं बनाना: विषय पर सर्वसम्मति होने के बाद नियम को लागू करने की अनिवार्यता जैसे प्रावधान के कारण दोहा विकास वार्ता (Doha Development Round) दशकों से अवरुद्ध है। इससे देश अब लघु समूह बनाकर मल्टीलैटरल की बजाय प्लुरिलेटरल समझौतों को प्राथमिकता दे रहे हैं।
- प्लुरिलेटरल ऐसे समझौते, कूटनीति या सहयोग हैं जिनमें कई देश शामिल हों सकते हैं, लेकिन सभी देश नहीं।
निष्कर्ष
WTO की प्रासंगिकता और प्रभावशीलता बनाए रखने के लिए उसके नियमों, विवाद निपटान व्यवस्था और संरचनात्मक व्यवस्था में सुधार करना अत्यंत आवश्यक है।