सुर्ख़ियों में क्यों ?
दक्षिण कोरिया के बुसान में आयोजित हालिया APEC शिखर सम्मेलन में अमेरिका के राष्ट्रपति ने चीनी राष्ट्रपति के साथ अपनी बैठक को "G2" सहभागिता के रूप में वर्णित किया। इससे वैश्विक मामलों में अमेरिका–चीन द्विध्रुवीय व्यवस्था का संकेत मिलता है।
बैठक की पृष्ठभूमि
- यह बैठक अमेरिका और चीन के बीच बढ़ते व्यापार युद्ध की पृष्ठभूमि में हुई।
- बैठक के परिणामस्वरूप एक अस्थायी व्यापारिक समझौता हुआ। इस समझौते में चीन पर अमेरिकी टैरिफ में कमी तथा चीन द्वारा अमेरिका को दुर्लभ धातुओं के निर्यात में ढील जैसे कदम शामिल हैं।
G2 (ग्रुप ऑफ टू)
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G2 द्विध्रुवीय व्यवस्था के निहितार्थ
- वैश्विक द्विध्रुवीय व्यवस्था एवं रणनीतिक पुनर्संरेखण: G2 की रूपरेखा विश्व व्यवस्था में परिवर्तन का संकेत देती है। इसमें चीन को अमेरिका के लगभग समकक्ष माना गया है और अमेरिका–चीन सहयोग को प्राथमिकता दी गई है। इससे यूरोपीय संघ, रूस, भारत और जापान जैसी शक्तियां दरकिनार हो जाती हैं।
- चीन के लिए आर्थिक लाभ: चीन द्वारा दुर्लभ धातुओं के निर्यात का शस्त्रीकरण भविष्य में सौदेबाजी के लाभ को बनाए रखने के उसके आत्मविश्वास को मजबूत करता है।
- सुरक्षा आश्वासनों का क्षरण: अमेरिका के सहयोगी देशों को आशंका है कि G2 व्यवस्था से पूर्वी एशिया (ताइवान के संदर्भ में) में अमेरिकी सैन्य उपस्थिति कम हो सकती है और सुरक्षा प्रतिबद्धताएं कमजोर पड़ सकती हैं।
- भारत-अमेरिका संबंधों में तनाव: यह बदलाव पहले से ही तनावपूर्ण संबंधों के बीच आया है, जिसमें भारतीय वस्तुओं पर बढ़े हुए टैरिफ भी शामिल हैं।
- इसके अलावा, G2 की अवधारणा इंडो–पैसिफिक क्षेत्र में चीन के उदय को संतुलित करने हेतु भारत–अमेरिका साझेदारी के भविष्य को लेकर अनिश्चितता बढ़ाती है उदाहरण के लिए, क्वाड शिखर सम्मेलन का स्थगन।
G2 के गठन को सीमित करने वाले प्रमुख निर्धारक
- राजनीतिक और वैचारिक मतभेद: दोनों देशों की राजनीतिक व्यवस्था और विश्वदृष्टि व्यापक रूप से भिन्न हैं। अमेरिका लोकतंत्र पर आधारित नियम-आधारित उदारवादी व्यवस्था का पक्षधर है, जबकि चीन संप्रभुता और राज्य के नेतृत्व वाले विकास को प्राथमिकता देता है।
- आपसी अविश्वास और प्रतिद्वंद्विता: यह संबंध मुख्य रूप से रणनीतिक प्रतिस्पर्धा और प्रतिद्वंद्विता द्वारा परिभाषित होता है, न कि सहयोग द्वारा।
- ताइवान की स्थिति, दक्षिण चीन सागर में क्षेत्रीय विवाद, व्यापार युद्ध और तकनीकी प्रतिबंध जैसे संरचनात्मक मुद्दे गहरा संदेह उत्पन्न करते हैं और एक वास्तविक, दीर्घकालिक साझेदारी को असंभव बनाते हैं।
- चीन द्वारा अवधारणा की अस्वीकृति: चीन ने ऐतिहासिक रूप से औपचारिक G2 रूपरेखा का विरोध किया है। वह संयुक्त राष्ट्र या ब्रिक्स (BRICS) के माध्यम से बहुपक्षवाद को प्राथमिकता देता है। चीन ऐसा मुख्य रूप से अमेरिका के 'कनिष्ठ भागीदार' के रूप में देखे जाने से बचने के लिए करता है।
भारत के लिए आगे की राह
- रणनीतिक स्वायत्तता को बनाए रखना: भारत को किसी भी एक शक्ति पर निर्भर या अधीनस्थ होने से बचना चाहिए। उदाहरण के लिए, ब्रिक्स, क्वाड आदि में भागीदारी।
- आर्थिक और सुरक्षा साझेदारियों का विविधीकरण: सुभेद्यताओं को कम करने और अधिक मुक्त व्यापार समझौतों (FTAs) को अंतिम रूप देकर रणनीतिक विकल्पों को व्यापक बनाने पर बल देना चाहिए। उदाहरण के लिए, यूरोपीय संघ (EU) के साथ।
- सहयोग को गहन करना: राष्ट्रीय हितों को आगे बढ़ाने के लिए समान विचारधारा वाले क्षेत्रीय और वैश्विक भागीदारों के साथ संबंधों को प्रगाढ़ करने की दिशा में अग्रसर होना चाहिए। उदाहरण के लिए, आसियान।
निष्कर्ष
यद्यपि G2 की चर्चा भले ही अमेरिका–चीन संबंधों के महत्व को दर्शाती हो, किंतु गहन अविश्वास और वैचारिक मतभेद वास्तविक द्विध्रुवीय व्यवस्था की संभावना को कम करते हैं। भारत के लिए प्राथमिकता अपनी रणनीतिक स्वायत्तता को बनाए रखना, विविध साझेदारियों का विस्तार करना और समान विचारधारा वाले देशों के साथ मिलकर बहुध्रुवीय वैश्विक व्यवस्था को सुदृढ़ करना है।