सुर्ख़ियों में क्यों?
हाल ही में, उच्चतम न्यायालय (SC) ने अधिकरण सुधार अधिनियम, 2021 के कुछ प्रावधानों को रद्द कर दिया। इन अधिनियम का संबंध विभिन्न न्यायाधिकरणों के सदस्यों की नियुक्ति, कार्यकाल और सेवा शर्तों से था।
इस निर्णय के मुख्य बिंदु
- न्यायिक निर्देशों पर विधायी अतिव्यापन: उच्चतम न्यायालय के अनुसार, 2021 का अधिनियम उन बाध्यकारी न्यायिक निर्णयों का खंडन करता है जिनमें बार-बार न्यायाधिकरण के सदस्यों की नियुक्ति, कार्यकाल और कामकाज से संबंधित मानकों को स्पष्ट किया गया है।
- इससे पहले, 2020 के मद्रास बार एसोसिएशन मामले (MBA IV) में, न्यायालय ने अधिकरण नियम 2020 को रद्द कर दिया था और 2021 के मद्रास बार एसोसिएशन मामले (MBA V) में, न्यायालय ने अधिकरण सुधार अध्यादेश 2021 को रद्द कर दिया था।
- संवैधानिक सर्वोच्चता के सिद्धांत के विरुद्ध: यह अधिनियम पिछले निर्णयों में पहचानी गई त्रुटियों को दूर करने में विफल रहा है और इसके बजाय उन्हें एक नए रूप में फिर से लागू करता है।
- यह शक्तियों के पृथक्करण और न्यायिक स्वतंत्रता के संवैधानिक सिद्धांतों का उल्लंघन करता है।
- वर्तमान स्थिति: उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया कि जब तक संसद पिछले निर्णयों में दिए गए निर्देशों को प्रभावी बनाने के लिए एक नया अधिनियम नहीं बनाती, तब तक पिछले MBA IV और MBA V मामलों में दिए गए निर्देश लागू रहेंगे।
- राष्ट्रीय अधिकरण आयोग: न्यायालय ने केंद्र सरकार को चार माह की अवधि के भीतर एक राष्ट्रीय न्यायाधिकरण आयोग गठित करने का निर्देश दिया है।
अधिनियम में बने रहने वाले मुद्दे बनाम उच्चतम न्यायालय के निर्णय | |
अधिकरण सुधार अधिनियम, 2021 | उच्चतम न्यायालय के निर्णय |
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भारत में न्यायाधिकरण प्रणाली
- परिचय: न्यायाधिकरण विधि द्वारा स्थापित न्यायिक या अर्ध-न्यायिक संस्थान हैं। इन्हें पारंपरिक न्यायालयों की तुलना में त्वरित न्याय निर्णय प्रदान करने और विशिष्ट विषयों पर विशेषज्ञता उपलब्ध कराने के लिए बनाया गया है।
- उत्पत्ति: भारत में न्यायाधिकरणों का इतिहास 1941 से प्रारंभ होता है, जब पहले न्यायाधिकरण के रूप में आयकर अपीलीय अधिकरण की स्थापना की गई थी।
- संवैधानिक स्थिति: 42वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1976 द्वारा संविधान में अधिकरणों से संबंधित अनुच्छेद 323-A और 323-B जोड़े गए।
- अनुच्छेद 323A: यह संसद को लोक सेवकों की भर्ती और सेवा शर्तों से संबंधित मामलों के निपटान के लिए प्रशासनिक न्यायाधिकरण (केंद्रीय और राज्य दोनों स्तरों पर) गठित करने की शक्ति देता है।
- अनुच्छेद 323B: यह कुछ विशिष्ट विषयों (जैसे कराधान और भूमि सुधार) को निर्दिष्ट करता है जिनके लिए संसद या राज्य विधायिका कानून बनाकर न्यायाधिकरण गठित कर सकती है।
- वर्ष 2010 में, उच्चतम न्यायालय ने व्यवस्था दी कि अनुच्छेद 323B के तहत आने वाले विषय अनन्य नहीं हैं और इनका विस्तार 7वीं अनुसूची में निर्दिष्ट किसी भी विषय तक हो सकता है।
- अपील: वर्तमान में, न्यायाधिकरणों का गठन उच्च न्यायालयों के विकल्प के रूप में और उच्च न्यायालयों के अधीनस्थ, दोनों रूपों में किया गया है।
- पूर्व स्थिति (विकल्प के रूप में) में, न्यायाधिकरणों के निर्णयों के विरुद्ध अपील सीधे उच्चतम न्यायालय में की जाती है। बाद वाली स्थिति (अधीनस्थ) में, अपील संबंधित उच्च न्यायालय द्वारा सुनी जाती है।
- चंदन कुमार मामले (2017) में, उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि न्यायाधिकरणों के निर्णयों के विरुद्ध उच्च न्यायालयों की खंडपीठ में अपील करने की अनुमति है।

न्यायाधिकरणों का महत्व
- विशिष्टीकरण: प्रत्येक न्यायाधिकरण को अपने निर्धारित विशेषज्ञता क्षेत्र के भीतर मामलों की सुनवाई और निर्णय करने का विशिष्ट क्षेत्राधिकार दिया जाता है।
- कुछ न्यायाधिकरणों के पास अपीलीय क्षेत्राधिकार होता है, जिसका अर्थ है कि वे न्यायाधिकरणों या सरकारी निकायों द्वारा लिए गए निर्णयों के विरुद्ध अपील की सुनवाई करते हैं।
- त्वरित समाधान: यह विशेष रूप से उन क्षेत्रों में महत्वपूर्ण है जहां समय पर निर्णय लेना अनिवार्य होता है, जैसे कि सेवा से संबंधित मामले, कर विवाद और पर्यावरणीय मुद्दे आदि।
- न्यायालयों का बोझ कम करना: विशिष्ट श्रेणी के मामलों का निपटारा करके, न्यायाधिकरण पारंपरिक न्यायालयों के बोझ को कम करने में योगदान देते हैं। इससे लंबित न्यायिक मामलों की समस्या का समाधान करने में मदद मिलती है।
- पहुंच: अधिकरण भौगोलिक रूप से विस्तृत हैं, जिनकी खंडपीठ पूरे देश भर में स्थित हैं।
- सेवा संबंधी मामलों में दक्षता: प्रशासनिक अधिकरण, जैसे कि केंद्रीय प्रशासनिक अधिकरण (CAT), सरकारी कर्मचारियों के सेवा संबंधी मामलों के समाधान में तेजी लाते हैं।
भारत में न्यायिक स्वतंत्रता और संसदीय संप्रभुता के बीच संवैधानिक संतुलन
- नियंत्रण और संतुलन की प्रणाली: भारत का संवैधानिक ढांचा सरकार की तीन शाखाओं के बीच शक्तियों का विभाजन करता है। इससे 'प्रशासनिक संप्रभुता' और 'न्यायिक सर्वोच्चता' के बीच एक अंतर्संबंध स्थापित होता है।
- जहां एक ओर संसद नीतियों, वित्तीय आवंटन और कार्यान्वयन के मुद्दों पर चर्चा कर सकती है, तो वहीं दूसरी ओर न्यायपालिका कार्यपालिका के कार्यों की संवैधानिकता और वैधता का निर्धारण करती है।
- संवैधानिक सर्वोच्चता: यह एक मुख्य मार्गदर्शक सिद्धांत के रूप में कार्य करता है जो संसद और न्यायपालिका के बीच किसी भी कठोर शक्ति-संघर्ष को रोकता है, क्योंकि ये दोनों ही संविधान के अधीन हैं।
- न्यायिक पुनरावलोकन : अनुच्छेद 13 राज्य को ऐसी विधि बनाने से रोकता है जो मूल अधिकारों का उल्लंघन करते हों। 'न्यायिक पुनरावलोकन' के माध्यम से, न्यायपालिका 'मूल ढांचे' या मूल अधिकारों का उल्लंघन करने वाले किसी भी विधि को असंवैधानिक घोषित कर सकती है।
- संसद की संविधान में संशोधन करने की शक्ति की सीमाएं: एक संविधान संशोधन विधेयक को संसद के प्रत्येक सदन में आधे से अधिक सदस्यों के समर्थन और उपस्थित एवं मतदान करने वाले सदस्यों के कम से कम दो-तिहाई बहुमत की आवश्यकता होती है।
- इसके अतिरिक्त, राज्यों और न्यायपालिका की शक्तियों को प्रभावित करने वाले संशोधनों के लिए आधे से अधिक राज्यों के अनुसमर्थन की भी आवश्यकता होती है। इसके साथ ही, संसद संविधान के 'मूल ढांचे' में संशोधन नहीं कर सकती है।
- सदस्यों को उन्मुक्ति: संविधान संसदीय कार्यवाही और संसद सदस्यों (MPs) को संरक्षण प्रदान करता है। सांसदों को संसद में कही गई किसी भी बात या दिए गए मत के लिए न्यायिक कार्यवाही से उन्मुक्ति प्राप्त है।
- इसी प्रकार, उच्चतम न्यायालय या उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के आचरण पर संसद में तब तक चर्चा नहीं की जा सकती (केवल उन्हें पद हटाने का प्रस्ताव को छोड़कर)।
निष्कर्ष
यद्यपि न्यायिक सक्रियता और न्यायालय के निर्णयों को पलटने वाली विधियों के उदाहरण सामने आते रहे हैं। फिर भी एक-दूसरे के अधिकार क्षेत्रों का सम्मान करने वाली एक स्वस्थ परंपरा बनाए रखना अनिवार्य है। यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि किसी भी संस्था के पास निरंकुश या पूर्ण शक्ति न हो।