इस रिपोर्ट में क्रायोस्फीयर यानी हिमांक-मंडल के पांच प्रमुख घटकों में हो रहे परिवर्तनों की स्थिति और प्रभावों को उजागर किया गया है। ये पांच प्रमुख घटक हैं; बर्फ की चादरें, पर्वतीय हिमनद और हिमपात, ध्रुवीय महासागर, समुद्री बर्फ तथा स्थायी तुषार भूमि (पर्माफ्रॉस्ट)।
रिपोर्ट के मुख्य बिंदुओं पर एक नजर
- बर्फ की चादरें (Ice Sheets): ग्रीनलैंड और अंटार्कटिका की बर्फ की चादरों से बर्फ का कम होना 1990 के दशक की तुलना में चार गुना बढ़ गया है।
- प्रभाव: इससे समुद्री जल-स्तर बढ़ा है। समुद्री जल-स्तर बढ़ने से तटीय क्षेत्रों में अवसंरचना, कृषि भूमि, मकानों और आजीविका को व्यापक स्तर पर नुकसान पहुंच रहा है।
- ध्रुवीय महासागर (Polar Oceans): ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन बढ़ने से ऊष्मा और कार्बन अवशोषित करने की ध्रुवीय महासागरों की क्षमता कम हो रही है तथा वैश्विक महासागरीय जल-धाराओं के परिसंचरण में इनकी भूमिका प्रभावित हो रही है।
- प्रभाव: अंटार्कटिक ओवरटर्निंग सर्कुलेशन (AOC) और अटलांटिक मेरिडियनल ओवरटर्निंग सर्कुलेशन (AMOC) जैसी दो प्रमुख महासागरीय जलधाराएं, ठोस ताजा-जल (हिमनद या बर्फ) के पिघलकर महासागर में मिलने से काफी धीमी हो गई हैं।
- पर्वतीय हिमनद और हिम (Mountain Glaciers and Snow): वर्ष 2000 से 2023 के बीच विश्व-भर में हिमनदों से प्रतिवर्ष लगभग 273 गीगाटन बर्फ पिघल गई हैं। यह हिमनदों के बर्फ की तीव्र गति से पिघलने का संकेत है।
- प्रभाव: यह स्थिति अरबों लोगों के लिए जल, भोजन, आर्थिक और राजनीतिक सुरक्षा के लिए गंभीर संकट उत्पन्न कर रही है।
- समुद्री बर्फ (Sea Ice): 1979 से अब तक, आर्कटिक और अंटार्कटिक, दोनों ध्रुवीय क्षेत्रों में समुद्री बर्फ का विस्तार और मोटाई 40–60% तक कम हो गई है।
- प्रभाव: समुद्री बर्फ कम होने से निम्नलिखित प्रभाव सामने आ रहे हैं:
- आर्कटिक क्षेत्र का तापमान विश्व के अन्य क्षेत्रों की तुलना में तेजी से बढ़ रहा है,
- बर्फ पर निर्भर प्रजातियों के लिए खतरा उत्पन्न हो गया है,
- मौसम और महासागरीय जल-धाराओं में परिवर्तन हो रहा है, तथा
- समुद्री जल-स्तर में वृद्धि से जुड़े खतरे बढ़ रहे हैं।
- प्रभाव: समुद्री बर्फ कम होने से निम्नलिखित प्रभाव सामने आ रहे हैं:
- स्थायी तुषार भूमि (Permafrost): वर्तमान तापवृद्धि की शुरुआत से प्रत्येक दशक में लगभग 2,10,000 वर्ग किलोमीटर परमाफ़्रॉस्ट पिघल चुका है।
- प्रभाव: पर्माफ्रॉस्ट के पिघलने से इनमें वर्षों से जमा जैविक कार्बन का वायुमंडल में उत्सर्जन हो रहा है जिससे इनकी मात्रा बढ़ रही है। इससे वैश्विक कार्बन संतुलन (Carbon budget) पर नकारात्मक असर पड़ रहा है।
- गौरतलब है कि पर्माफ्रॉस्ट में वायुमंडल की तुलना में तीन गुना अधिक कार्बन जमा है।
- प्रभाव: पर्माफ्रॉस्ट के पिघलने से इनमें वर्षों से जमा जैविक कार्बन का वायुमंडल में उत्सर्जन हो रहा है जिससे इनकी मात्रा बढ़ रही है। इससे वैश्विक कार्बन संतुलन (Carbon budget) पर नकारात्मक असर पड़ रहा है।
Article Sources
1 sourceसंयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) के ‘कूल कोएलिशन’ ने ‘ग्लोबल कूलिंग वॉच 2025' रिपोर्ट प्रकाशित की है। इस रिपोर्ट में उन संधारणीय शीतलन समाधानों का उल्लेख किया गया है जो 2050 तक शीतलन से होने वाले अनुमानित ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में नाटकीय रूप से कमी ला सकते हैं।
रिपोर्ट में रेखांकित मुख्य चिंताएं
- शीतलन तकनीकों की मांग में वृद्धि: यदि मौजूदा शीतलन तकनीकों के उपयोग और उनकी मांग में वृद्धि जारी रहती है तो वैश्विक शीतलन उपकरणों की क्षमता 2022 की 22 टेरावॉट (TW) से बढ़कर 2050 तक 68 TW हो जाएगी। यह तीन गुना वृद्धि है।
- नीतियों में कमियां: विश्व के केवल 54 देशों द्वारा ही संधारणीय शीतलन समाधान को पूरी तरह से अपनाया गया है। वैसे कई देशों की नीतियों में इनका उल्लेख तो है, लेकिन इस दिशा में कार्यान्वयन नहीं हो पा रहा है।
- बढ़ती भीषण गर्मी: जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल (IPCC) के अनुसार, आज विश्व की 30% आबादी घातक उष्मीय तनाव (Heat Stress) का सामना कर रही हैं। यह अनुपात सदी के अंत तक बढ़कर 48% से 76% तक हो सकता है।
- यह समस्या शहरी ऊष्मा द्वीप प्रभाव और लू (हीटवेव्स) की वजह से और अधिक गंभीर हो जाएगी।
प्रस्तावित संधारणीय शीतलन समाधान
- परंपरागत शीतलन तकनीक: मकानों के डिजाइन, शहरी नियोजन और रेफ्रिजरेटेड कैबिनेट्स पर दरवाजे जैसे आसान परंपरागत उपायों का सहारा लिया जा सकता है। इससे आधुनिक शीतलन तकनीकों पर भार कम होगा। इससे लागत और उत्सर्जन, दोनों में कमी आएगी।
- कम ऊर्जा खपत वाली शीतलन तकनीकों का उपयोग: एयर कंडीशनिंग की बजाय या उसके साथ पंखे और वाष्पशील कूलर जैसी कम ऊर्जा खपत वाली प्रणालियों को प्राथमिकता देनी चाहिए। इससे ऊर्जा उपयोग और लागत में कटौती की जा सकती है।
- सर्वोत्तम ऊर्जा दक्षता वाली तकनीकों को अपनाना: परिवर्तनीय-गति वाले कंप्रेसर और उच्च दक्षता वाली प्रणालियां अपनानी चाहिए और इनका नियमित रूप से रखरखाव भी करना चाहिए। इससे ये प्रणालियां अपना सर्वोत्तम प्रदर्शन देंगी।
- हाइड्रोफ्लोरोकार्बन (HFC) का चरणबद्ध रूप से उपयोग समाप्त करना: कम वैश्विक तापवृद्धि क्षमता (GWP) वाले ऐसे रेफ्रिजरेंट उपयोग करने चाहिए जिसकी दक्षता हमेशा बनी रहे। इससे प्रत्यक्ष उत्सर्जन कम होगा और संधारणीय शीतलन को बढ़ावा मिलेगा।
‘बीट द हीट’ वैश्विक पहल के बारे में
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Article Sources
1 sourceहाल ही में, CCPI जारी किया गया है। यह 63 देशों और यूरोपीय संघ (EU) के जलवायु प्रदर्शन की तुलना करता है। ये देश और EU सभी वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के 90% से अधिक के लिए जिम्मेदार हैं।

भारत से संबंधित निष्कर्ष
- इस वर्ष के CCPI में भारत 23वें स्थान पर है, जो उच्च प्रदर्शन करने वाले देश से मध्यम प्रदर्शन करने वाले देश की रैंक में आ गया है।
- कोयले के उपयोग को समाप्त करने की कोई राष्ट्रीय समय-सीमा तय नहीं की गई है। नए कोयला ब्लॉक्स की नीलामी जारी की गई है।
- मुख्य मानदंड: भारत को समय-सीमा के साथ व चरणबद्ध रीति से कोयले के उपयोग को कम और फिर पूर्णतया समाप्त करना होगा। साथ ही, अपनी जीवाश्म सब्सिडियों को विकेन्द्रीकृत व सामुदायिक स्वामित्वाधीन नवीकरणीय ऊर्जा की ओर निर्देशित करना होगा।
Article Sources
1 sourceजर्मनवॉच ने जलवायु जोखिम सूचकांक (CRI) 2026 जारी किया।
- यह सूचकांक चरम मौसमी घटनाओं से होने वाले मानवीय और आर्थिक नुकसान के आधार पर देशों को रैंक प्रदान करता है। इससे जलवायु के प्रति मजबूत अनुकूलनशीलता की तत्काल आवश्यकता प्रकट होती है।
जलवायु जोखिम सूचकांक (CRI) के बारे में
- उत्पत्ति: इसे 2006 में एक वार्षिक वैश्विक जलवायु प्रभाव सूचकांक के रूप में प्रस्तुत किया गया था।
- 2026 सूचकांक के मुख्य बिंदुओं पर एक नजर:
- वर्ष 1995 और 2024 के बीच, 9,700 चरम मौसमी घटनाएं हुई हैं। इन घटनाओं के कारण 8 लाख से अधिक मौतें हुई हैं और 4.5 ट्रिलियन डॉलर का नुकसान हुआ है।
- भारत CRI रैंक 2024 में 15वें स्थान पर और CRI रैंक 1995-2024 में 9वें स्थान पर रहा।
- भारत ने तीन दशकों में लगभग 430 चरम मौसमी घटनाओं का सामना किया है। इनसे 170 बिलियन डॉलर का नुकसान हुआ है और 1.3 बिलियन लोग प्रभावित हुए हैं।
संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन (FAO) ने “द स्टेट ऑफ फूड एंड एग्रीकल्चर (SOFA) 2025 रिपोर्ट” जारी की है।
रिपोर्ट के मुख्य बिंदुओं पर एक नजर
- भूमि क्षरण की परिभाषा: भूमि क्षरण को “भूमि की उत्पादकता और पारिस्थितिकी-तंत्र कार्यों एवं सेवाओं को प्रदान करने की उसकी क्षमता में दीर्घकालिक गिरावट” के रूप में परिभाषित किया गया है।
- यह प्राकृतिक कारणों (मृदा अपरदन, लवणीकरण आदि) और मानवजनित कारणों (वनों की कटाई, अत्यधिक चराई, असंतुलित खेती एवं सिंचाई पद्धतियां इत्यादि) से प्रेरित है।
- भूमि क्षरण के प्रभाव
- फसल उत्पादन में कमी: लगभग 1.7 बिलियन लोग ऐसे क्षेत्रों में रहते हैं, जहां मानव गतिविधियों से भूमि क्षरण होने के कारण फसल उत्पादन में औसतन 10% की गिरावट आई है।
- एशियाई देश सबसे ज्यादा प्रभावित हैं, क्योंकि यहां जनसंख्या घनत्व अधिक है और भूमि का क्षरण भी बहुत अधिक बढ़ गया है।
- उत्पादकता में गिरावट: कुल कारक उत्पादकता वृद्धि, जो तकनीकी प्रगति और दक्षता में सुधार को दर्शाती है, विशेषकर ग्लोबल साउथ के देशों में 2000 के दशक से घटी है।
- खाद्य सुरक्षा पर असर: वैश्विक स्तर पर, पांच वर्ष से कम आयु के 47 मिलियन बच्चे ठिगनेपन से पीड़ित हैं। साथ ही, ये बच्चे ऐसे क्षेत्रों में रहते हैं, जहां भूमि क्षरण से फसल उत्पादन घट रहा है।
- पारिस्थितिकी-तंत्र पर प्रभाव: भूमि क्षरण सभी प्रकार की कृषि प्रणालियों को नुकसान पहुंचाता है।
- इससे चरागाहों में पशु उत्पादन पर असर पड़ता है।
- कृषि के विस्तार के लिए वनों की कटाई के कारण जलवायु पैटर्न और जैव विविधता दोनों प्रभावित होते हैं।
- फसल उत्पादन में कमी: लगभग 1.7 बिलियन लोग ऐसे क्षेत्रों में रहते हैं, जहां मानव गतिविधियों से भूमि क्षरण होने के कारण फसल उत्पादन में औसतन 10% की गिरावट आई है।
संधारणीय भूमि उपयोग के लिए नीतिगत विकल्प
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Article Sources
1 sourceओज़ोन परत को नष्ट करने वाले पदार्थों पर मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल के पक्षकारों की 37वीं बैठक (MOP-37) संपन्न हुई है।
- इस बैठक में निम्नलिखित मुद्दों पर प्रकाश डाला गया-
- हाइड्रोफ्लोरोकार्बन (HFCs) उत्सर्जन में रिपोर्ट किए गए और मापन किए गए डेटा के बीच विसंगति;
- कई क्षेत्रों में वायुमंडलीय निगरानी स्टेशनों की कमी आदि।
मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल के बारे में
- हस्ताक्षरित: 1987 में।
- यह ओज़ोन क्षयकारी पदार्थों (Ozone Depleting Substances - ODS) के उत्पादन और उपयोग को समाप्त करने के लिए एक वैश्विक, कानूनी रूप से बाध्यकारी संधि है।
- इसे वियना अभिसमय के तहत लागू किया गया है।
- वियना अभिसमय को 1985 में अपनाया गया था।
- मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल में किगाली संशोधन: इसे 2016 में हाइड्रोफ्लोरोकार्बन (HFCs) के उत्पादन व उपयोग को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने के लिए अपनाया गया था।HFCs एक ग्रीनहाउस गैस है, जिसका उपयोग ODS के विकल्प के रूप में किया जाता है। HFCs ओज़ोन क्षयकारी पदार्थ नहीं है।
यह निर्णय ‘पारा पर मिनामाता अभिसमय (Mercury)’ के पक्षकारों के छठे सम्मेलन (COP-6) में जेनेवा में लिया गया। इस निर्णय का उद्देश्य पारे से होने वाले प्रदूषण को कम करना है। इसके साथ ही, त्वचा को निखारने वाले पारा-मिश्रित उत्पादों का उपयोग समाप्त करने के लिए वैश्विक प्रयासों को भी तेज करने पर सहमति बनी।
पारा के बारे में
- गुण:
- पारा (Hg) भारी और चांदी जैसा सफेद रंग का संक्रमण-धातु (Transition metal) है। यह प्राकृतिक रूप से पाया जाता है। इसका परमाणु क्रमांक 80 है।
- यह तन्य (ductile) और लचीला (malleable) होता है। साथ ही, यह ऊष्मा और विद्युत का सुचालक है।
- यह एकमात्र आम धातु है जो सामान्य तापमान पर द्रव अवस्था में प्राप्त होता है।

- पारा के स्रोत:
- प्राकृतिक स्रोत: ज्वालामुखी उद्गार, महासागरीय उत्सर्जन आदि।
- मानव-जनित स्रोत: खनन (विशेषकर सोने की खानों में), जीवाश्म ईंधन का दहन, धातु व सीमेंट उत्पादन आदि।
- उपयोग: पारे का उपयोग थर्मामीटर, बैरोमीटर, फ्लोरोसेंट लाइट, कुछ बैटरियों, और दंत अमलगम यानी दांतों में कैविटी भरने में किया जाता रहा है।
- विषाक्तता:
- वायुमंडल में उत्सर्जित पारा अंततः पानी में या जमीन पर संचित होता रहता है। एक बार संचित हो जाने पर कुछ सूक्ष्मजीव इसे मिथाइलमर्करी में बदल देते हैं।
- मिथाइलमर्करी अत्यंत विषाक्त होता है। यह मछलियों, शंख-घोंघों तथा मछलियां खाने वाले जीवों में संचित होता रहता है।
- पारे की बहुत कम मात्रा के भी संपर्क से तंत्रिका तंत्र, किडनी, त्वचा, आंखें, पाचन तंत्र और प्रतिरक्षा तंत्र पर गंभीर प्रभाव पड़ सकता है।
- वायुमंडल में उत्सर्जित पारा अंततः पानी में या जमीन पर संचित होता रहता है। एक बार संचित हो जाने पर कुछ सूक्ष्मजीव इसे मिथाइलमर्करी में बदल देते हैं।
हालिया अध्ययनों से पता चला है कि जलवायु परिवर्तन के कारण तुर्काना झील के जलस्तर में गिरावट से इस क्षेत्र में भूकंप की गतिविधि बढ़ गई है।
- जब किसी झील का जलस्तर गिरता है, तो कम हुए जल भार के कारण भू-पर्पटी पर दबाव कम हो जाता है। इससे भ्रंशों (faults) में हलचल की संभावना बढ़ जाती है और भूकंप आने की आशंका में वृद्धि होने लगती है।
झील तुर्काना के बारे में
- यह विश्व की सबसे बड़ी मरुस्थलीय झील है और सबसे बड़ी क्षारीय झील भी है।
- स्थान: यह मुख्य रूप से केन्या में स्थित है, लेकिन इसका उत्तरी हिस्सा इथियोपिया तक फैला हुआ है।
- इसमें आने वाला 90% से अधिक जल ओमो नदी से आता है। यह नदी इथियोपिया में प्रवाहित होती है।
- तुर्काना झील राष्ट्रीय उद्यान स्थल को 1997 में विश्व धरोहर सूची में शामिल किया गया था।
- माउंट सेमेरु, इंडोनेशिया:
- यह जावा द्वीप पर स्थित सबसे ऊंचा ज्वालामुखी है।
- यह प्रशांत अग्नि वलय (Pacific Ring of Fire) का हिस्सा है, जो भूकंपीय रूप से अत्यधिक सक्रिय क्षेत्र है।
- प्रकार: यह एक स्ट्रैटोवोलकेनो है।
- इंडोनेशिया में अन्य हालिया ज्वालामुखी उद्गार: माउंट लेवोटोबी लाकी लाकी, मेरापी ज्वालामुखी आदि।
- हैली गुब्बी, इथियोपिया: इस ज्वालामुखी उद्गार से लाल सागर और दक्षिण एशिया तक राख का विशाल बादल फैल गया। इससे भारत के ऊपर राख का घना बादल छा गया, जिसकी वजह से कई विमानों के उड़ान-मार्ग को बदलना पड़ा।
भारत और बोत्सवाना ने ‘प्रोजेक्ट चीता’ के तहत आठ चीतों को भारत में स्थानांतरित (Translocation) करने की औपचारिक घोषणा की है।
प्रोजेक्ट चीता के बारे में

- परिचय: प्रोजेक्ट चीता वर्ष 2022 में शुरू किया गया था। इसका उद्देश्य अफ्रीकी चीतों को भारत में लाना और इन्हें फिर से बसाना है। यह विशाल जंगली मांसाहारी जानवर का एक महाद्वीप से दूसरे महाद्वीप में स्थानांतरण का विश्व का पहला कार्यक्रम है।
- इसके तहत 2022 में, नामीबिया से आठ चीतों को मध्य प्रदेश के कूनो राष्ट्रीय उद्यान में लाया गया। इसके बाद 2023 में दक्षिण अफ्रीका से बारह चीतों को लाया गया।
- प्रोजेक्ट कार्यान्वयन एजेंसी: राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (NTCA)।
- NTCA केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के अंतर्गत कार्यरत एक सांविधिक संस्था है। इसकी स्थापना वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 के प्रावधानों के अंतर्गत की गई है, जिसे 2006 में संशोधित किया गया था।
- चीता परियोजना संचालन समिति: इसका गठन NTCA द्वारा 2023 में किया गया था। यह समिति प्रोजेक्ट चीता के कार्यान्वयन की देखरेख, मूल्यांकन और आवश्यक सलाह देने से जुड़े कार्य करती है।
- इस प्रोजेक्ट का संचालन प्रोजेक्ट टाइगर नामक मुख्य पहल के तहत किया जाता है।
- ध्यातव्य है कि 2023-24 में प्रोजेक्ट एलीफेंट को प्रोजेक्ट टाइगर में विलय करके इसका नाम “प्रोजेक्ट टाइगर और एलीफैंट” कर दिया गया।
चीता (एसिनोनिक्स जुबेटस वेनेटिकस/ Acinonyx Jubatus Venaticus) के बारे में
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ये निर्देश बढ़ते मानव-वन्यजीव संघर्षों से निपटने के लिए जारी किए गए हैं। पर्यावास क्षरण, अनियंत्रित पर्यटन और बाघ गलियारों के विखंडन के कारण इन संघर्षों में वृद्धि हो रही है।
उच्चतम न्यायालय द्वारा दिए गए निर्देशों पर एक नजर
- टाइगर सफारी पर प्रतिबंध: सफारी केवल बफर क्षेत्रों में गैर-वन या निम्नीकृत वन भूमि पर ही अनुमत होगी।
- कोर क्षेत्रों या निर्दिष्ट बाघ गलियारों में कोई सफारी नहीं होगी।
- रात्रिकालीन पर्यटन: यह कोर/ महत्वपूर्ण बाघ पर्यावासों में प्रतिबंधित होगा।
- निषिद्ध गतिविधियां: बफर/ सीमावर्ती क्षेत्रों में निम्नलिखित गतिविधियां वर्जित होंगी-
- वाणिज्यिक खनन; प्रदूषणकारी उद्योग; प्रमुख जल विद्युत परियोजनाएं; विदेशी प्रजातियों का प्रवेश; कम ऊंचाई पर उड़ने वाले विमान; व्यावसायिक रूप से जलाऊ लकड़ी काटना आदि।
- पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्र (ESZs): सभी टाइगर रिज़र्व्स में पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 के तहत केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय के 2018 के दिशा-निर्देशों के अनुसार ESZs अधिसूचित करने होंगे।
- ध्यातव्य है कि राज्य सरकारों के आग्रह पर केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय द्वारा ESZs अधिसूचित किए जाते हैं।
- बाघ संरक्षण योजनाएं (TCPs): राज्यों को निर्धारित समय-सीमा के भीतर TCPs तैयार/ संशोधित करनी होंगी।
- कोर और बफर क्षेत्रों को छह महीनों के भीतर अधिसूचित करना होगा।
- प्राकृतिक आपदा का दर्जा: राज्य मानव-वन्यजीव संघर्षों को प्राकृतिक आपदा के रूप में मान्यता प्रदान करेंगे। इससे त्वरित राहत सुनिश्चित की जा सकेगी।
- क्षतिपूर्ति: मानव-वन्यजीव संघर्ष के कारण यदि किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है, तो उसके परिजनों को ₹10 लाख की एकसमान अनुग्रह राशि (ex-gratia) प्रदान की जाएगी।
- मानव-वन्यजीव संघर्ष शमन दिशा-निर्देशों का मसौदा: राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (NTCA) छह महीनों के भीतर यह मसौदा तैयार करेगा और इसे सभी राज्यों द्वारा कार्यान्वित किया जाएगा।
टाइगर रिज़र्व के बारे में
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उच्चतम न्यायालय ने कुछ माह पहले वनशक्ति मामले में अपने निर्णय में पूर्व-प्रभाव (ex post facto) से पर्यावरणीय मंज़ूरी देने पर रोक लगा दी थी।
- वनशक्ति मामले में शीर्ष न्यायालय ने केंद्र की वर्ष 2017 की अधिसूचना और 2021 के कार्यालय ज्ञापन (OM) को रद्द कर दिया था। इनमें कोई भी परियोजना शुरू होने के बाद उसे पर्यावरणीय मंजूरी प्रदान करने वाले प्रावधान शामिल थे।

वनशक्ति मामले में दिए गए निर्णय को वापस लेने का कारण:
- कानूनी पूर्व-निर्णयों की उपेक्षा: भारत के मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि वनशक्ति मामले में निर्णय देते समय समान संख्या वाले न्यायाधीशों की अन्य पीठों के पिछले निर्णयों का ध्यान नहीं रखा गया। इस प्रकार वह अनजाने में लिया गया त्रुटिपूर्ण निर्णय (per incuriam) था।
- उदाहरण के लिए: डी. स्वामी बनाम कर्नाटक राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (2021) मामले में शीर्ष न्यायालय ने निर्णय दिया था कि असाधारण परिस्थितियों में पूर्व-प्रभाव से पर्यावरणीय मंजूरी दी जा सकती है।
- एलेम्बिक फार्मास्युटिकल्स लिमिटेड (2020) मामले में उच्चतम न्यायालय ने पूर्व-प्रभाव से पर्यावरणीय मंजूरी को तो हतोत्साहित किया, लेकिन मौजूदा पूर्व-प्रभाव वाली पर्यावरणीय मंजूरियों को मौद्रिक दंड देने के निर्देश के साथ नियमित कर दिया था।
- आर्थिक लागत: वनशक्ति मामले में दिए गए निर्णय का अनुपालन करने से पूरी हो चुकी सार्वजनिक परियोजनाओं की संरचनाओं को ध्वस्त करना पड़ेगा।
- इसके अलावा, बड़ी संरचनाओं को ध्वस्त करने से अधिक प्रदूषण फैल सकता है, जैसे कि मलबा जमा होना, पुनर्निर्माण से उत्सर्जन आदि।
पूर्व-प्रभाव से दी गई पर्यावरणीय मंजूरी के बारे में:
- पूर्व-प्रभाव से पर्यावरणीय मंजूरी का अर्थ है कि कोई परियोजना बिना पर्यावरणीय मंजूरी (EC) लिए शुरू हो जाती है और बाद में उसे मंजूरी दे दी जाती है ताकि वह अपना कार्य जारी रख सके।
- पर्यावरणीय प्रभाव आकलन (EIA) अधिसूचना, 2006 में स्पष्ट रूप से किसी परियोजना के शुरू होने से पहले 'पूर्व-पर्यावरणीय मंजूरी' लेने का प्रावधान है।
- इससे पहले, कॉमन कॉज बनाम भारत संघ एवं अन्य मामले (2017) में, उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया था कि पूर्व-प्रभाव या पूर्वव्यापी पर्यावरणीय मंज़ूरी की अवधारणा पर्यावरणीय-न्याय संबंधी कानून में स्वीकार्य नहीं है।
DRAP को स्वच्छ भारत मिशन–शहरी 2.0 (SBM-U 2.0) के तहत शुरू किया गया है। यह लगभग एक वर्ष तक चलने वाली लक्षित पहल है। इसे सितंबर 2026 तक “लक्ष्य ज़ीरो डंपसाइट्स” का उद्देश्य पूरा करने के लिए शुरू किया गया है।
- स्वच्छ भारत मिशन (शहरी) 2.0 को 2021 में शुरू किया गया था। इसका उद्देश्य सभी शहरों के लिए कचरा-मुक्त का दर्जा सुनिश्चित करना है।
- इस मिशन का एक अन्य उद्देश्य सभी पुराने कूड़े के ढेर वाले स्थलों (legacy dumpsites) की सफाई करना और उन्हें हरित क्षेत्रों में बदलना है।
डंपसाइट रीमेडिएशन एक्सेलरेटर प्रोग्राम के बारे में
- उद्देश्य: विशाल ‘कचरे वाले स्थलों’ की सफाई को प्राथमिकता देना। इनमें लगभग 8.8 करोड़ मीट्रिक टन पुराने अपशिष्टों यानी लीगेसी वेस्ट को हटाने पर ध्यान दिया जाएगा।
- लीगेसी वेस्ट से आशय वास्तव में लैंडफिल या डंपसाइट में नगर निगम के पुराने अपशिष्ट से है। इनमें पूरी तरह या आंशिक रूप से अपघटित हो चुके जैव-निम्नीकृत (Biodegradable) अपशिष्ट, प्लास्टिक अपशिष्ट, आदि शामिल हैं।
- देश का लगभग 80% लीगेसी वेस्ट 202 शहरी स्थानीय निकायों (ULBs) में 214 स्थलों पर केंद्रित है।
- क्रियान्वयन मंत्रालय: केंद्रीय आवासन और शहरी कार्य मंत्रालय (MoHUA)
- पात्रता: सभी राज्य और केंद्र शासित प्रदेश जिनमें लेगेसी वेस्ट से जुड़ी परियोजनाएं संचालित की जा रही हैं। इस कार्यक्रम के तहत 45,000 मीट्रिक टन से अधिक लेगेसी वेस्ट वाले स्थलों को प्राथमिकता दी जाएगी।
- केंद्र शासित प्रदेशों और पूर्वोत्तर राज्यों के लिए अपशिष्ट की कोई न्यूनतम सीमा नहीं रखी गई है।
भारत में डंपसाइट्स की स्थिति और प्रबंधन
- वर्तमान स्थिति: 1,428 डंपसाइट्स में सफाई का काम चल रहा है, जिनमें से 1,048 पूरी तरह साफ की जा चुकी हैं।
- प्रमुख उत्सर्जन और प्रदूषण की चिंताएं:
- निक्षालन (Leachate): यह डंपसाइट्स के अपशिष्ट के नीचे से निकलने वाला प्रदूषित तरल पदार्थ है।
- लैंडफिल गैस: कार्बन डाइऑक्साइड और मीथेन का मिश्रण, जो ऑक्सीजन की कमी की स्थिति में अपशिष्ट के सड़ने से बनता है।
डंपसाइट के प्रबंधन की प्रमुख तकनीकें | |
बायोकैपिंग | जैव-खनन |
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हाल ही में, ग्लोबल रिपोर्टिंग इनिशिएटिव (GRI) ने इंटीग्रिटी मैटर्स चेकलिस्ट लॉन्च की है। यह UN द्वारा समर्थित एक फ्रेमवर्क है जिसे कॉर्पोरेट जलवायु प्रकटीकरण को संयुक्त राष्ट्र के नेट-ज़ीरो मानकों के अनुरूप बनाने के लिए डिज़ाइन किया गया है।
ग्लोबल रिपोर्टिंग इनिशिएटिव (GRI) के बारे में
- यह एक अंतर्राष्ट्रीय, गैर-लाभकारी संस्था है, जो विश्व का सबसे अधिक उपयोग किया जाने वाला सस्टेनेबिलिटी रिपोर्टिंग फ्रेमवर्क प्रदान करती है।
- स्थापना: वर्ष 1997 में स्थापित।
- ESG प्रकटीकरण: GRI मानक संगठनों को आर्थिक, पर्यावरणीय और सामाजिक प्रभावों की रिपोर्टिंग में सक्षम बनाते हैं।
- मॉड्यूलर संरचना: GRI मानक तीन-स्तरीय प्रणाली पर आधारित हैं, जिसमें यूनिवर्सल मानक, क्षेत्रीय मानक और विषय-आधारित मानक शामिल हैं।
Article Sources
1 sourceकेंद्रीय पर्यावरण मंत्री ने ब्राजील के बेलेम में हो रहे COP- 30 में LeadIT उद्योग के नेताओं के गोलमेज सम्मेलन को संबोधित किया।
लीडरशिप ग्रुप फॉर इंडस्ट्री ट्रांजिशन (LeadIT) के बारे में
- शुरुआत: LeadIT के प्रथम चरण की शुरुआत 2019 में भारत और स्वीडन ने संयुक्त राष्ट्र जलवायु कार्रवाई शिखर सम्मेलन में की थी। यह विश्व आर्थिक मंच (WEF) द्वारा समर्थित है।
- उद्देश्य: इसका उद्देश्य 2050 तक भारी उद्योगों से नेट जीरो उत्सर्जन के लक्ष्य को हासिल करना है। इस तरह का लक्ष्य निर्धारित करने वाली यह पहली वैश्विक उच्च-स्तरीय पहल थी।
- कार्य: LeadIT सार्वजनिक-निजी भागीदारी को बढ़ावा देकर, संसाधनों को जुटाकर और ज्ञान साझाकरण का समर्थन करके न्यायसंगत एवं समान उद्योग संक्रमण को प्रेरित करता है।
- LeadIT 2.0 (2024-2026): इसे CoP28 में वार्षिक LeadIT शिखर सम्मेलन में अपनाया गया था।
- सदस्य: इसमें 18 सदस्य देश और 27 कंपनियां शामिल हैं।
Article Sources
1 source- स्वीकृति: इसे COP-28 (2023) में अपनाया गया था और यह पेरिस समझौते के तहत पहले ग्लोबल स्टॉकटेक को दर्शाता है।
- ऊर्जा ट्रांजीशन: यह राष्ट्रों से जीवाश्म ईंधन की जगह स्वच्छ हरित ईंधन को न्यायसंगत, निष्पक्ष और संतुलित तरीके से अपनाने का आग्रह करता है।
- नवीकरणीय ऊर्जा और दक्षता: यह 2030 तक नवीकरणीय ऊर्जा को तिगुना करने और ऊर्जा दक्षता को दोगुना करने के स्पष्ट लक्ष्य को निर्धारित करता है।
- जलवायु वित्त: यह सुभेद्य राष्ट्रों की सहायता के लिए अधिक अनुकूलन सहायता और वित्तीय सुधारों का आह्वान करता है।
- वैश्विक लक्ष्य: इसका उद्देश्य वैश्विक तापमान वृद्धि को 1.5°C तक सीमित रखना और 2050 तक नेट-ज़ीरो उत्सर्जन हासिल करना है।
Article Sources
1 sourceरिपोर्ट के मुख्य बिंदुओं पर एक नजर:
- वित्तीय अंतराल: विकासशील देशों को 2030 के मध्य तक अनुकूलन के लिए 310–365 अरब अमेरिकी डॉलर प्रति वर्ष की कमी का सामना करना पड़ेगा।
- वर्तमान वित्त-पोषण: वैश्विक अनुकूलन वित्त-पोषण केवल 26 अरब अमेरिकी डॉलर है, जो आवश्यकताओं से बहुत कम है।
- कार्यान्वयन में देरी: अधिकांश देशों ने योजनाएं तो बनाई हैं, लेकिन उनके उचित क्रियान्वयन का अभाव है और उनकी गुणवत्ता भी कम बनी हुई है।
- तत्काल कार्रवाई की आवश्यकता: वित्त-पोषण, नवोन्मेषी साधनों और बेहतर लोचशीलता योजनाओं में व्यापक पैमाने पर वृद्धि करने की आवश्यकता है।
- भारत से संबंधित तथ्य: भारत ने अपनी राष्ट्रीय अनुकूलन निधि और राज्य कार्य योजना को आगे बढ़ाया है, लेकिन फिर भी यह बहुत अधिक गर्मी, अनिश्चित मानसून और तटीय बाढ़ से अत्यधिक प्रभावित है।
Article Sources
1 sourceसंयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) ने “उत्सर्जन अंतराल रिपोर्ट 2025: ऑफ टारगेट” जारी की है।
रिपोर्ट के मुख्य बिंदुओं पर एक नजर
- पेरिस समझौते के तहत अपडेटेड राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (NDCs) प्रतिबद्धताओं के बावजूद भी इस सदी तक वैश्विक तापमान में 2.3-2.5 डिग्री सेल्सियस तक की वृद्धि हो सकती है।
- यह पेरिस समझौते के उस लक्ष्य से कम है, जिसमें तापमान वृद्धि को 2°C से काफी नीचे सीमित करना और इसे 1.5°C तक सीमित करने के प्रयासों को जारी रखना तय किया गया है।
- 2024 में GHGs उत्सर्जन में 2.3% की वृद्धि हुई थी। यह 57.7 गीगाटन CO₂ समतुल्य तक पहुंच गया था।
- 1.5 डिग्री सेल्सियस लक्ष्य के अनुरूप होने के लिए, 2035 तक उत्सर्जन में 55% की गिरावट की आवश्यकता होगी।
- कुल ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में सर्वाधिक वृद्धि भारत और चीन में दर्ज की गई है। हालांकि, भारत में प्रति व्यक्ति ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन वैश्विक औसत से कम है।