महात्मा गांधी और श्री नारायण गुरु के जीवन मूल्य (VALUES OF MAHATMA GANDHI AND SREE NARAYANA GURU)
Posted 21 Jul 2025
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परिचय
श्री नारायण धर्म संगम ट्रस्ट द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में श्री नारायण गुरु और महात्मा गांधी के बीच ऐतिहासिक संवाद की शताब्दी मनाई गई।
यह संवाद 12 मार्च, 1925 को महात्मा गांधी की केरल यात्रा के दौरान केरल के शिवगिरी मठ में आयोजित हुआ था। यह संवाद वायकोम सत्याग्रह, धर्मांतरण, अहिंसा, अस्पृश्यता उन्मूलन, मोक्ष प्राप्ति, दमितों के उत्थान आदि विषयों पर केंद्रित था।
श्री नारायण गुरु के बारे में (1856-1928)
उनका जन्म केरल के तिरुवनंतपुरम के निकट चेंबाज़ंती गाँव में हुआ था।
उन्होंने समाज सुधार को आगे बढ़ाने के लिए 1903 में श्री नारायण धर्म परिपालन योगम (SNDP) की स्थापना की।
उन्होंने एझावा और हाशिए पर पड़े अन्य समुदायों के सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ेपन को दूर करने पर ध्यान केंद्रित किया।
उन्होंने निवृत्ति पंचकाम और आत्मोपदेश शतकाम जैसी कृतियों की रचना की, जो अद्वैत वेदांत दर्शन के महत्वपूर्ण ग्रंथ हैं।
वर्ष 1888 में, श्री नारायण गुरु ने अरुविप्पुरम में एक शिवलिंग की प्रतिस्थापना की थी।
विभिन्न पहलुओं पर श्री नारायण गुरु और महात्मा गांधी के विचार
पहलू
श्री नारायण गुरु
महात्मा गांधी
सामाजिक सुधार
नारायण गुरु का मानना था कि जाति अप्राकृतिक, मनुष्यों द्वारा बनाई गई है। इसलिए, वे इसे अवास्तविक मानते थे। इस प्रकार, उन्होंने "एक जाति, एक धर्म और एक ईश्वर" का उद्घोष किया।
उनका मानना था कि यद्यपि सकारात्मक कार्रवाई आर्थिक असमानताओं को दूर करती है, किंतु यह जातिवाद को समाप्त नहीं करती है।
उन्होंने धीमी, शिक्षाप्रद प्रक्रिया को अपनाने की वकालत की, जैसे- "जाति के बारे में न पूछो, न बताओ और न सोचो"। साथ ही, उन्होंने सरकारी अभिलेखों से जातिगत उल्लेख हटाने का सुझाव दिया।
गांधीजी अस्पृश्यता के विरोधी थे। फिर भी, वे वर्णाश्रम व्यवस्था में विश्वास करते थे।
उन्होंने कहा कि विभिन्न वर्ण (लोगों के वर्ग) स्वाभाविक रूप से अस्तित्व में आते हैं।
गांधीजी का विचार था कि समाज के सभी लोगों को चार मुख्य व्यवसायों में रखा जा सकता है: शिक्षण, रक्षा, संपदा सृजन और शारीरिक श्रम।
धार्मिक विचार
उनका मानना था कि आध्यात्मिक विकास के लिए हिंदू धर्म पर्याप्त है, लेकिन उन्होंने स्वीकार किया कि अन्य धर्म भी मोक्ष की ओर ले जा सकते हैं।
गांधीजी ने सभी धर्मों को सत्य तक पहुंचने के समान मार्ग माना। उनके लिए धर्म का अर्थ नैतिकता और मानवता की निःस्वार्थ सेवा से था।
उन्होंने ऐसे राजनीति का विरोध किया जो धर्म से अलग हो, क्योंकि उनके अनुसार इससे मनुष्य भ्रष्ट, स्वार्थी, अविश्वसनीय, भौतिकवादी और अवसरवादी बनता है।
मंदिरों में प्रवेश एवं सामाजिक समानता
उन्होंने सभी जातियों के लिए मंदिरों के द्वार खोलने (उदाहरण- अरुविप्पुरम आंदोलन); धार्मिक स्थलों में जातिगत विशिष्टता को तोड़ने का कार्य किया।
उन्होंने मंदिर प्रवेश आंदोलनों (जैसे- वायकॉम सत्याग्रह) का समर्थन किया और दमितों के अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी।
शिक्षा
उन्होंने शिक्षा को मानवीय प्रगति और समृद्धि का एकमात्र साधन माना। साथ ही, उन्होंने कहा कि शिक्षा अंधविश्वासों और अस्वस्थ परंपराओं जैसी सभी सामाजिक बुराइयों के लिए सर्वोच्च रामबाण है।
उन्होंने महिलाओं को समान अवसर देने की वकालत की और पूरे केरल में कई विद्यालयों की स्थापना की।
उन्होंने बुनियादी शिक्षा (नई तालीम या वर्धा बेसिक शिक्षा योजना) की वकालत की, जिसमें शारीरिक श्रम और कारीगरी को बौद्धिक विकास के साथ जोड़कर आत्मनिर्भरता और गरिमा का विकास किया जाता है।
उन्होंने व्यावसायिक और साहित्यिक दोनों तरह के प्रशिक्षण पर जोर दिया और अंग्रेजी के बजाय मातृभाषा में शिक्षा को अधिक उपयुक्त माना।
निष्कर्ष
श्री नारायण गुरु की सामाजिक समानता और आध्यात्मिक मानवतावाद की दृष्टि आज भी अत्यंत प्रासंगिक है। उनके उपदेश महिला सशक्तीकरण के लिए समावेशी नीतियों, जातीय समावेशन की पहलों और पर्यावरण संरक्षण को प्रेरणा प्रदान करते हैं। ये भारत को गरिमा और सम्मान पर आधारित न्यायपूर्ण, सद्भाव और सतत समाज की ओर ले जाते हैं।